आदिवासियों का मसीहा – “डॉ. भीमराव अंबेडकर”

Dr Beemrao Ambedkar - Bastariya Babu

"डॉ. भीमराव अंबेडकर"


डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि वह संघर्ष, आत्मबल और सामाजिक परिवर्तन की जीवंत मिसाल भी है। 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे अंबेडकर का प्रारंभिक जीवन गहरा अपमान और भेदभाव झेलते हुए बीता। अछूत कहे जाने वाले महार जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें न तो पानी पीने की अनुमति थी, न स्कूल में बराबरी से बैठने की। लेकिन उनके भीतर ज्ञान की ऐसी अग्नि थी, जो इन रुकावटों को चीरती चली गई।


अंबेडकर ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी (अमेरिका) और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (ब्रिटेन) से उच्च शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने दुनिया को यह दिखा दिया कि सामाजिक दर्जा जन्म से नहीं, ज्ञान और संघर्ष से बनता है। उनका पूरा जीवन भारत में जातिवाद के खात्मे और शोषित वर्गों को उनके अधिकार दिलाने में समर्पित रहा।


एक आदिवासी लेखक होने के नाते, मैं यह अनुभव करता हूँ कि अंबेडकर हमारे लिए केवल एक व्यक्ति नहीं हैं – वह एक विचारधारा हैं, एक क्रांति हैं, और एक रोशनी की किरण हैं जो आज भी हमारे अंधकार भरे समाज को राह दिखा रही है। जब हमारे पूर्वज जंगलों में आज़ादी और सम्मान के साथ रहते थे, तब व्यवस्था ने हमें ‘वनवासी’ कहकर मुख्यधारा से दूर कर दिया। अंबेडकर वह पहले शख्स थे, जिन्होंने यह बताया कि यह देश जितना ब्राह्मणों और राजाओं का है, उतना ही गोंड, माड़िया, भील, कोरकू और दलितों का भी है। उन्होंने भारतीय संविधान की रचना में नेतृत्व किया, जिसमें समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय जैसे मूल्य सुनिश्चित किए गए। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के अधिकार सिर्फ कागजों तक सीमित न रह जाएं, बल्कि उन्हें ज़मीनी हकीकत में बदला जाए। 


अंबेडकर ने यह भी कहा था, “शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।” यह नारा आज भी उतना ही प्रासंगिक है। आज जब हमारे बच्चे स्कूल जाने से वंचित हैं, जब हमारी ज़मीनें छीनी जा रही हैं, और जब हमें जंगलों से खदेड़ा जा रहा है – तब अंबेडकर की यही वाणी हमें आत्मबल और दिशा देती है। उनका जीवन यह बताता है कि उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ उठाना कोई अपराध नहीं, बल्कि कर्तव्य है। उन्होंने यह साबित किया कि अगर हिम्मत हो तो इतिहास बदला जा सकता है। उनके विचारों और कार्यों की गूंज आज भी हमारी बोली-बानी, हमारी संस्कृति और हमारे संघर्ष में सुनाई देती है। डॉ. अंबेडकर केवल आदिवासी, दलितों के नहीं, बल्कि पूरे शोषित भारत के मसीहा हैं। उन्होंने वह रास्ता दिखाया जिस पर चलकर हम अपने आत्म-सम्मान, स्वराज और सामाजिक न्याय की ओर बढ़ सकते हैं। 

 

 

✦ दलितों के लिए संघर्ष 

 

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन एक सतत संघर्ष की कहानी है – एक ऐसा संघर्ष जो उन्होंने सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि उन करोड़ों दलितों के लिए लड़ा जो सदियों से सामाजिक बहिष्कार, जातिगत भेदभाव और अपमान का शिकार थे। उन्होंने देखा कि कैसे दलितों को मानव नहीं, बल्कि एक नीच प्राणी समझा जाता है – उन्हें मंदिरों से दूर रखा जाता था, स्कूलों में पढ़ने नहीं दिया जाता था, और पानी तक पीने के अधिकार से वंचित किया जाता था। अंबेडकर ने इस अन्याय को केवल व्यक्तिगत पीड़ा के रूप में नहीं लिया, बल्कि इसे एक सामाजिक ढांचे की बीमारी माना। उनके लिए यह ज़रूरी था कि इस व्यवस्था को जड़ से उखाड़ा जाए, ताकि कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने जन्म के आधार पर हीन न समझा जाए। 

 

उन्होंने सार्वजनिक स्थलों पर दलितों के प्रवेश का आंदोलन शुरू किया, जैसे – महाड़ सत्याग्रह (1927), जहाँ उन्होंने ‘चवदार तालाब’ से पानी पीकर यह घोषणा की कि पानी सिर्फ उच्च जातियों की संपत्ति नहीं है। 1930 में उन्होंने कालाराम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसमें उन्होंने साफ कहा – “जिस धर्म में मुझे इंसान न समझा जाए, उस धर्म में मुझे कोई स्थान नहीं चाहिए।” उनका यह विद्रोह केवल धार्मिक असमानता के खिलाफ नहीं था, बल्कि एक आत्म-सम्मान की पुकार थी।

 

डॉ. अंबेडकर का यह संघर्ष हमें गहराई से छूता है। हम भी, हमारे पूर्वजों की तरह, इस देश की मिट्टी से जुड़े हैं। हमने भी सामाजिक अपमान झेला है – कभी हमारे पहनावे पर, कभी हमारी भाषा पर, कभी हमारे देवी-देवताओं पर। अंबेडकर की यह लड़ाई केवल आदिवासी और दलितों के लिए नहीं थी, यह उन सभी के लिए थी जिन्हें समाज ने ‘कमतर’ समझा। उन्होंने दलितों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करने की कोशिश की। “डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन” और “इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी” जैसे संगठनों के माध्यम से उन्होंने कहा कि जब तक दलित सत्ता में हिस्सेदार नहीं होंगे, तब तक उनके साथ न्याय नहीं होगा। 

 

अंबेडकर का संघर्ष हमें यह सिखाता है कि अधिकार भीख में नहीं मिलते, उन्हें छीनना पड़ता है – संविधान, आंदोलन और चेतना के बल पर। उन्होंने कानून में वह ताकत डाली कि अब कोई भी दलित को अस्पृश्य नहीं कह सकता – लेकिन यह बदलाव सिर्फ कागज़ों तक सीमित न रहे, इसके लिए आज भी संघर्ष की ज़रूरत है। उनका जीवन, उनका संघर्ष हमें यह संदेश देता है कि जब तक अंतिम व्यक्ति को न्याय नहीं मिलेगा, तब तक अंबेडकर का मिशन अधूरा रहेगा। 

 

✦ डॉ. भीमराव अंबेडकर और आदिवासी समाज 

 

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने विचारों और आंदोलनों में हमेशा उन वर्गों की चिंता की जो सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर थे। आमतौर पर अंबेडकर को दलितों के उद्धारक के रूप में देखा जाता है, लेकिन वे आदिवासी समाज के लिए भी उतने ही चिंतित और समर्पित थे। उन्होंने बार-बार यह बात कही थी कि आदिवासी और दलित दोनों ही उस शोषणकारी व्यवस्था के शिकार हैं जो वर्ण व्यवस्था के आधार पर समाज को बाँटती है।अंबेडकर ने महसूस किया था कि आदिवासियों को न केवल आर्थिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी मुख्यधारा से काट दिया गया है। उन्होंने संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष अधिकार, आरक्षण और संरक्षित क्षेत्र सुनिश्चित किए ताकि आदिवासी समुदाय अपनी अस्मिता, संस्कृति और अधिकारों की रक्षा कर सके।

 

एक आदिवासी लेखक होने पर मुझे आज यह महसूस होता है कि उन्होंने हमारे जंगलों, हमारे देवताओं, हमारे पेन-परब और हमारी भाषा तक की चिंता की। उन्होंने कहा था कि आदिवासियों को उनके संसाधनों से वंचित करना, उन्हें उनकी ही ज़मीनों से विस्थापित करना एक गंभीर अपराध है। अंबेडकर ने आदिवासियों के लिए पृथक प्रशासनिक और सामाजिक ढांचा सुझाया था जिसे ‘ट्राइबल सब-प्लान’ के रूप में बाद में अपनाया गया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि संविधान की पाँचवीं और छठवीं अनुसूचियाँ आदिवासियों को उनके क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और प्रशासनिक अधिकार प्रदान करें। उनके इन प्रयासों से यह स्पष्ट होता है कि अंबेडकर ने आदिवासियों को केवल एक ‘वंचित वर्ग’ नहीं माना, बल्कि एक स्वायत्त सांस्कृतिक समुदाय के रूप में सम्मान दिया।

 

आज जब हमारी संस्कृति पर बाहरी प्रभाव हावी हो रहे हैं, जब हमारी बोली, नृत्य, परंपराएँ विलुप्ति की कगार पर हैं – तब अंबेडकर के विचार और उनके संवैधानिक उपाय हमें संरक्षण प्रदान करते हैं। उन्होंने आदिवासी युवाओं को शिक्षा और संगठन के माध्यम से जागरूक होने का आह्वान किया था। उनका यह संदेश आज और भी अधिक प्रासंगिक है – जो समाज अपने जंगल, ज़मीन और संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकता, वह अपने भविष्य की रक्षा कैसे करेगा?

 

डॉ. अंबेडकर ने आदिवासी समाज के साथ न्याय करने की नींव रखी – अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उस नींव पर आत्मसम्मान और अधिकारों की मजबूत इमारत खड़ी करें।

 

“शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो” – यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक दिशा है, खासकर आदिवासी युवाओं के लिए। अंबेडकर मानते थे कि आदिवासी समाज का उत्थान शिक्षा, आत्मनिर्भरता और सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। उन्होंने युवाओं से आग्रह किया था कि वे अपनी संस्कृति पर गर्व करें, अपनी भाषा, गीत, परंपराओं को संरक्षित करें, और राजनीतिक रूप से सक्रिय बनें।

आज आवश्यकता है कि हमारे युवा खुद को कमजोर न समझें, बल्कि अंबेडकर की शिक्षाओं को हथियार बनाकर आगे आएँ। समाज में बदलाव लाने की शक्ति हमारे भीतर है, जरूरत है उसे पहचानने की और अपने समुदाय को साथ लेकर चलने की।

 

जब अंबेडकर ने कहा था “शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो”, वह केवल एक नारा नहीं था — वह हमारे लिए एक पुकार थी। यह पुकार उन जंगलों से निकली थी जहां पेन (देवता) की पूजा होती है, जहां मांदर की थाप पर पीढ़ियाँ जागती रही हैं, और जहां हर पेड़, हर नदी, हर चट्टान में आत्मा बसती है। डॉ. अंबेडकर ने जो कहा, वह हमारे आदिवासी जीवन-दर्शन से विरोधाभासी नहीं था, बल्कि उसका विस्तार था।

 

हमारे बुजुर्ग कहते हैं:

“आदिवासी बने रहो, तब तक कोई तुम्हारी जड़ें नहीं काट सकता।”
और यही बात अंबेडकर ने भी कही — अपनी पहचान को मत छोड़ो, बल्कि उसे अपनी शक्ति बनाओ।

आज जब बाजारवाद, राजनीतिक स्वार्थ और शहरीकरण की आँधी में हमारी भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं, हमारे देवगुड़ वीरान हो रहे हैं, और हमारे युवा अपनी जड़ों से कट रहे हैं, तब अंबेडकर का संदेश और अधिक जीवंत हो जाता है।

“ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है।” यह ज्ञान न केवल स्कूल-कॉलेज की डिग्रियों में है, बल्कि अपने इतिहास को जानने, अपने अधिकारों को समझने और अपने पूर्वजों की लड़ाइयों को याद रखने में है।

आदिवासी युवाओं को अब चाहिए कि वे गुनिया और बैगा की सूझबूझ के साथ, और नए युग की पढ़ाई और तकनीक के साथ एक नव-जागरण खड़ा करें।

हम वह पीढ़ी हैं जिसने देखा है –

  • कैसे हमारी ज़मीनें विकास के नाम पर छीनी जाती हैं,

  • कैसे हमारे त्योहारों को ‘अंधविश्वास’ कहा जाता है,

  • कैसे हमारी बोलियाँ स्कूलों से गायब होती जाती हैं,

  • और कैसे हमारे बच्चों को “आदिवासी” कहकर हीन समझा जाता है।

अब हमें खुद खड़ा होना है। हमें फिर से अपने गांवों में पढ़ाई की अलख जगानी है। हमें अपनी भाषा में साहित्य लिखना हैअपनी संस्कृति का दस्तावेज बनाना हैऔर अपने हक के लिए संविधान के भीतर रहकर लड़ना है।

 

हमारे पुरखे कुल्हाड़ी चलाते थे, आज हमें कलम चलानी है।

वे जंगल बचाते थे, हमें संस्कृति बचानी है। 

हमने मांदर पर नाचा है, अब समय है ‘संविधान की ताल’ पर, अपना अधिकार-गीत गाने का।

हमारी बोली में जो मिठास है, वह किसी भी भाषा से कम नहीं,
हमारे देवगुड़ी, हमारी परंपराएं, किसी यूनिवर्सिटी से छोटी नहीं।

डॉ. भीमराव अंबेडकर का संविधान निर्माण में योगदान भारतीय इतिहास की सबसे विराट और गौरवपूर्ण उपलब्धियों में से एक है। वह केवल संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष नहीं थे, बल्कि उन्होंने उस दस्तावेज़ की आत्मा में वह चेतना भरी, जो समानता, न्याय और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करती है। आज जब हम संविधान को देखते हैं, तो उसमें हमें सिर्फ कानून की भाषा नहीं, बल्कि अस्तित्व की सुरक्षा की गारंटी भी दिखाई देती है। 

 

डॉ. अंबेडकर ने संविधान में वह स्वर दिया, जिसमें हमारे अधिकारों की प्रतिध्वनि है। जब उन्होंने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की, तब उन्होंने केवल शिक्षा या नौकरी की बात नहीं की, उन्होंने कहा — “इन वर्गों को सदियों से जिस सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक शोषण का सामना करना पड़ा है, उसका न्याय केवल समान अवसर से नहीं, बल्कि संरक्षित अवसर से ही संभव है।” 

 

उन्होंने संविधान में अनुच्छेद 46 के तहत राज्य को यह जिम्मेदारी दी कि वह अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के आर्थिक हितों की विशेष देखभाल करे और सामाजिक अन्याय से उनकी रक्षा करे। इसी सोच के तहत हमें पेसा अधिनियम, वनाधिकार कानून, और शिक्षा में विशेष अवसर मिले हैं। डॉ. अंबेडकर ने यह भी सुनिश्चित किया कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष हो, ताकि कोई भी व्यक्ति – चाहे वह किसी भी जाति, जनजाति या पंथ से जुड़ा हो – समान नागरिक अधिकारों का उपयोग कर सके। यही वह आधार है जिससे आज एक आदिवासी छात्र आईआईटी में पढ़ सकता है, एक आदिवासी महिला विधायक बन सकती है, और एक आदिवासी किसान अपनी जमीन का मालिक बना रह सकता है। यह संविधान ही है, जिसकी छाया में हमारी पहचान और अधिकार दोनों संरक्षित हैं। अंबेडकर का यह योगदान केवल दलितों के लिए नहीं था, बल्कि आदिवासियों, महिलाओं और सभी वंचित वर्गों के लिए नई सुबह का सूरज था।

 

एक आदिवासी के रूप में मैं जब संविधान की प्रस्तावना पढ़ता हूँ – “हम भारत के लोग… न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व स्थापित करेंगे” – तो मुझे लगता है जैसे अंबेडकर हमारे गांव के किसी गुनिया की तरह कह रहे हों:

“अपने हक को जानो, अपनी ताकत को पहचानो, और एक होकर आगे बढ़ो।”

भारत के संविधान में दी गई समानता की गारंटी और डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा दिखाए गए रास्ते के बावजूद, आज भी दलितों और आदिवासियों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। सरकारी नीतियों, आरक्षण, और योजनाओं के माध्यम से कुछ परिवर्तन ज़रूर हुआ है, लेकिन जमीनी स्तर पर असमानता, शोषण और बहिष्कार अब भी व्यापक रूप में मौजूद हैं। ग्रामीण भारत में आज भी दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने, बारात निकालने या सार्वजनिक कुंओं से पानी लेने में बाधाएं झेलनी पड़ती हैं। दलित महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार और उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार सामने आती रहती हैं। सरकारी आँकड़ों और एनसीआरबी की रिपोर्टें दर्शाती हैं कि दलितों के खिलाफ अपराधों में इजाफा हुआ है। यह स्थिति अंबेडकर के उस सपने के विपरीत है जिसमें हर व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान देने की बात थी। 

आदिवासियों की स्थिति आज भी अत्यंत दयनीय और चिंता जनक बनी हुई है, विशेषकर भारत के बस्तर, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और पूर्वोत्तर के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में। यह विडंबना ही है कि जिन क्षेत्रों में खनिज संपदा की भरमार है, इन क्षेत्रों के मूलनिवासी आज भी पीने के पानी, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, और सुरक्षित आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। सरकारी योजनाएँ ज़रूर चलाई जाती हैं, लेकिन उनका लाभ जमीन पर दिखना मुश्किल है। भ्रष्टाचार, नौकरशाही की उदासीनता और राजनीतिक उपेक्षा ने आदिवासी समाज को पीछे ही नहीं धकेला है, बल्कि उन्हें निरंतर विस्थापन, भूख, और शोषण के चक्र में फँसाए रखा है। विकास के नाम पर बड़े-बड़े बाँध, खनन परियोजनाएँ और जंगलों की कटाई हमारे जल-जंगल-ज़मीन को निगल गई हैं।

पुलिस दमन और माओवादी हिंसा के दो पाटों के बीच आदिवासी समुदाय पिसता चला जा रहा है। एक तरफ सुरक्षा बलों के अभियान हैं, तो दूसरी ओर माओवादी हिंसा — दोनों ही आदिवासी युवाओं के भविष्य को निगल रही हैं। गाँव खाली हो रहे हैं, देवगुड़ी सूने पड़ गए हैं, और लोग अपनी ही ज़मीन पर बेगाने बनते जा रहे हैं। हमारी भाषाएँ, लोककथाएँ, पारंपरिक ज्ञान, और सांस्कृतिक परंपराएँ अब लुप्त होने की कगार पर हैं। कई बार हमारी पहचान को भी योजनाबद्ध तरीके से कमजोर करने के प्रयास हुए हैं — कभी धर्मांतरण के आरोपों के नाम पर, तो कभी ‘विकास’ के नाम पर रीति-रिवाजों को अंधविश्वास कहकर खारिज कर दिया जाता है।

एक आदिवासी लेखक के रूप में, यह पीड़ा केवल शब्दों की नहीं, बल्कि आत्मा की पीड़ा है। जब अपनी मातृभाषा को स्कूल की किताबों में जगह नहीं मिलती, जब अपने ही त्योहारों को ‘नाच-गाना’ कहकर टाल दिया जाता है, जब अपने इतिहास को ‘अनपढ़’ कहकर भुला दिया जाता है — तब लगता है जैसे हमें हमारी ही धरती से उखाड़ा जा रहा है। आदिवासी लेखक के रूप में, मैं यह महसूस करता हूँ कि यह केवल एक सामाजिक या आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि हमारी पहचान, संस्कृति, और आत्मसम्मान का सवाल है। जब हमारे युवा शहरों में अपनी जड़ों से कटकर खो जाते हैं, जब हमारे बुजुर्ग अपनी परंपराओं को अगली पीढ़ी को नहीं सौंप पाते, तब यह संकट केवल सुविधाओं का नहीं, बल्कि आत्मा के बिखरने का होता है। यह संकट हमारी परंपराओं, मान्यताओं और सामुदायिक जीवन के उस ताने-बाने का टूटना है, जिसे हमने सहस्त्राब्दियों से सहेजा है। हमें न केवल योजनाओं की ज़रूरत है, बल्कि उस सोच को बदलने की आवश्यकता है जो हमें ‘कमतर’, ‘पिछड़ा’, या ‘अनपढ़’ समझती है। यह सोच न केवल सामाजिक अन्याय को जन्म देती है, बल्कि हमारी आत्मा को घायल करती है। हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करना होगा और अपनी भाषाओं, रीति-रिवाज़ों, लोककथाओं और पारंपरिक ज्ञान पद्धतियों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करना होगा। 

शिक्षा की बात हो तो उसमें केवल अंग्रेज़ी माध्यम की प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि स्थानीय बोली और स्थानीय ज्ञान का भी सम्मान होना चाहिए। आदिवासी युवाओं के लिए यह समय आत्मचिंतन और आत्मनिर्माण का है। उन्हें आधुनिक शिक्षा, तकनीकी दक्षता, और डिजिटल दुनिया की समझ के साथ-साथ अपने इतिहास, परंपरा और समुदाय से भी गहराई से जुड़ना होगा। वे आज के युग के ‘संविधान-योद्धा’ बन सकते हैं — जो कलम से, तर्क से, और संवाद से अपने हक की बात करें, जो जंगल की आत्मा और संविधान की मशाल को एक साथ लेकर चलें। हमें अपने त्योहारों को केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि सामुदायिक संगठन और सामाजिक चेतना का माध्यम बनाना चाहिए। हमें स्कूलों में अपनी लोककथाओं, पेन-परब, और देवगुड़ी की कहानियों को पढ़ाया जाना चाहिए ताकि अगली पीढ़ी को गर्व हो कि वे किस महान सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा हैं।

आज ज़रूरत है एक नए समावेशी और सशक्त आंदोलन की — जो अंबेडकर की विरासत को केवल भाषणों में न दोहराए, बल्कि उसे जमीनी हकीकत में बदले। यह आंदोलन केवल आरक्षण या वोट बैंक की राजनीति न होकर, आत्मगौरव, सांस्कृतिक चेतना, और ठोस राजनीतिक संगठन का मिश्रण हो। हमें गाँव-गाँव, टोला-टोला, पारा-पारा तक शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कृति के नवजागरण की लौ जलानी होगी। युवाओं को चाहिए कि वे आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ अपनी मातृभाषा, अपने इतिहास और अपनी पहचान से भी गहराई से जुड़ें। 

यह संघर्ष केवल अधिकारों के लिए नहीं, बल्कि अपनी पहचान को पुनः स्थापित करने का भी है। और यही अंबेडकर की विचारधारा का सार है — कि हम अपने अस्तित्व के लिए लड़े, अपने आत्मसम्मान के लिए खड़े हों, और अपने समाज को जागरूक और संगठित बनाएं। 

यदि हमें सच में अंबेडकर के सपनों का भारत बनाना है, तो दलितों और आदिवासियों की गरिमा, आत्मसम्मान और अधिकारों की रक्षा करनी होगी — केवल नारे और घोषणाओं से नहीं, बल्कि नीति, निष्ठा और संकल्प से। 

“जय भीम “

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