बस्तर संभाग, छत्तीसगढ़ का वह क्षेत्र है जहाँ गोंड, मुरिया, माड़िया, धुरवा, हल्बा जैसे जनजातीय समुदाय न केवल रहते हैं, बल्कि अपनी अद्वितीय सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं और सामाजिक संरचनाओं को जीवित रखे हुए हैं। इन्हीं परंपराओं में से एक है – पत्थलगड़ी।
बस्तर संभाग के जनजातीय समाज में पत्थलगड़ी आज भी एक जीवंत परंपरा के रूप में विद्यमान है, जो केवल मृत पूर्वजों की स्मृति को सुरक्षित रखने का माध्यम नहीं है, बल्कि आदिवासी अस्मिता, सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता और ग्राम गणराज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था का सशक्त प्रतीक बन चुकी है। यह परंपरा बस्तर के आदिवासियों के जीवनदर्शन, आत्मसम्मान और सामूहिक चेतना का गहरा दर्पण प्रस्तुत करती है।
यहाँ की जनजातियाँ – सदियों से एक आत्मनिर्भर, विकेंद्रीकृत सामाजिक संरचना में जीवन यापन करते आए हैं, जहाँ ग्रामसभा सर्वोच्च सत्ता रही है। इस व्यवस्था में निर्णय सामूहिक रूप से होते हैं और भूमि, जल, जंगल जैसे संसाधनों पर समुदाय का साझा अधिकार स्वीकार किया जाता है। पत्थलगड़ी इन अधिकारों और सीमाओं की सार्वजनिक घोषणा होती है। जब किसी गाँव की सीमा पर पत्थर खड़ा किया जाता है, तो वह संदेश देता है – “यह भूमि हमारी है, हमारे पूर्वजों की है, और इसके संरक्षक हम स्वयं हैं।”
इस प्रकार, बस्तर की पत्थलगड़ी केवल अतीत की परंपरा नहीं, बल्कि वर्तमान में अपनी अस्मिता को जीवित रखने, बाहरी दखल से रक्षा करने और भविष्य के आत्मनिर्णय को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया है। यह एक सांस्कृतिक औजार है, जिसके माध्यम से आदिवासी समाज संविधान और परंपरा के मध्य एक सेतु बनाता है – न संघर्ष से दूर, न विकास से विमुख, बल्कि स्वायत्तता और सम्मान के साथ अपनी राह चुनता हुआ।

आइये इस लेख में आदिवासी समाज के परंपरागत इस पत्थलगढ़ी व्यवस्था को हम इस प्रकार से समझने की कोशिश करते हैं –
01. मृतक-स्मृति-स्तंभ
02. गणराज्य सीमा।
03. स्वशासन।

:: मृतक-स्मृति-स्तंभ ::
आदिवासी संस्कृति में प्रकृति को केवल पूज्य नहीं माना गया, बल्कि उसे जीवन का सक्रिय घटक स्वीकार किया गया। पत्थर, वृक्ष, जलस्रोत, पहाड़ – सभी में आत्मा का वास माना जाता रहा है। जब कोई बुजुर्ग या समाज का सम्मानित सदस्य मृत्यु को प्राप्त करता था, तो उसकी स्मृति में एक बड़ा पत्थर खड़ा किया जाता था जिसे हम मृतक स्तंभ अथवा स्मृति स्तंभ अथवा मृतक-स्मृति-स्तंभ के नाम से जानते हैं । यह पत्थर न केवल स्मृति का प्रतीक होता था, बल्कि यह भी दर्शाता था कि यह भूमि उनके पूर्वजों की है, और आज भी उन्हीं के उत्तराधिकारियों का उस पर नैसर्गिक हक़ है।
मृतक-स्मृति-स्तंभ स्थापित करने की प्रथा कोई आधुनिक आविष्कार नहीं है, बल्कि यह मानव सभ्यता की शुरुआत से ही जुड़ी हुई है। प्राचीन काल से ही आदिवासी समुदाय आत्मा, अलौकिक व प्रकृति शक्ति में विश्वास करता आया है। लोक कथाओं में मान्यता है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है और उसका पुनर्जन्म हो सकता है । इसी विश्वास के चलते आदिवासी समुदाय, अपने दिवंगत आत्मा की शांति के लिए परंपरा का निर्वाहन करते हुए सेवा करते हैं , जिनमें मृतक-स्मृति-स्तंभों का निर्माण जनजातीय समुदाय में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ये स्तंभ केवल यादगारी ढांचे नहीं होते, बल्कि आत्मा की शांति के लिए की जाने वाली प्रार्थनाओं और सम्मान का प्रतीक भी होते हैं।
इन स्तंभों पर उकेरे गए चित्र या आकृतियाँ केवल सजावट मात्र नहीं होतीं, बल्कि गहरे प्रतीकात्मक अर्थ रखती हैं। ये प्रतीक अक्सर उस समुदाय की मान्यताओं, जीवनशैली और मृतक के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं को दर्शाते हैं। आदिवासी समाजों में, स्तंभों पर पेन, पुरखा और गोत्र का चित्रण अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- पेन: यह अक्सर कुलदेवता या ग्रामदेवता को संदर्भित करता है, जो समुदाय के संरक्षक माने जाते हैं।
- पुरखा: यह पूर्वजों की आत्माओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिनका सम्मान और पूजन आवश्यक माना जाता है।
- गोत्र: यह वंश या कुल की पहचान कराता है, जो अक्सर प्रकृति के किसी तत्व (जैसे विशेष पेड़, पशु, पक्षी, नदी, पहाड़) से जुड़ा होता है, जिसे टोटम भी कहते हैं।
आदिवासी परंपरा में प्रकृति के इन तत्वों (फल-फूल, पेड़-पौधे, नदी, पहाड़, जंगल आदि) को पूजनीय और देवी-देवताओं का दर्जा दिया जाता है। उनकी पूजा-आराधना दैनिक जीवन का हिस्सा होती है। कलाकारों द्वारा स्तंभों पर इन्हीं प्राकृतिक और सांस्कृतिक प्रतीकों को उकेरने का प्रयास किया जाता है। इन प्रतीकों के माध्यम से वे न केवल मृतक को श्रद्धांजलि देते हैं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान और प्रकृति के साथ अपने गहरे संबंध को भी दर्शाते हैं।
स्तंभों पर अक्सर निम्नलिखित विषयों का चित्रण मिलता है, ये चित्रण मृतक के जीवन, उसके समुदाय की संस्कृति और उनके विश्वासों का एक सजीव दस्तावेज़ प्रस्तुत करते हैं :
- दैनिक जीवन के दृश्य: खेती, खाना बनाना, सामाजिक गतिविधियाँ आदि।
- शिकार के दृश्य: समुदाय के लिए भोजन जुटाने का एक महत्वपूर्ण पहलू।
- नृत्य और संगीत के दृश्य: उत्सव, अनुष्ठान और सामुदायिक जीवन का अभिन्न अंग।
- वाद्य यंत्र: जैसे ढोल, मांदर, बांसुरी आदि, जो संगीत और नृत्य से जुड़े हैं।
- पशु-पक्षी: जिनका धार्मिक, सांस्कृतिक या टोटमिक महत्व हो।
- औजार: दैनिक जीवन और आजीविका से संबंधित उपकरण।
- अलंकरण: पारंपरिक गहने और सजावटी रूपांकन।
मृतक स्तंभों को क्षेत्र और समुदाय के आधार पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है और उनके स्वरूप में भी भिन्नता होती है:
बीत (Beet) और उरुसकाल खम्ब (Uruskal Khamb):
- इनका मुख्य उद्देश्य मृतक की स्मृति को बनाए रखना और उसके सम्मान को प्रदर्शित करना होता है।
- इनमें कलात्मक बारीकियां या जटिल नक्काशी भले ही कम हो, लेकिन इनका आकार और उपस्थिति भव्यता और श्रेष्ठता का एहसास कराती है।
- उरुसकाल विशेष रूप से एक बड़ा शिलाखंड (पत्थर का टुकड़ा) होता है, जिसे मृतक की याद में जमीन में गाड़कर खड़ा किया जाता है। इसकी ऊँचाई एक फुट से लेकर पन्द्रह-बीस फीट या उससे भी अधिक हो सकती है। यह मृतक के गौरव, सामाजिक स्थिति और उसके सम्मान का स्थायी प्रतीक माना जाता है। इसे आमतौर पर परिवार के सदस्यों द्वारा स्थापित किया जाता है।
खम्ब (Khamb):
- यह लकड़ी या पत्थर को तराशकर बनाया गया एक सुडौल और कलात्मक स्तंभ होता है।
- इसमें विभिन्न आकृतियों, डिजाइनों और कभी-कभी रंगों का भी प्रयोग होता है। ‘खम्ब’ शब्द अधिक परिष्कृत और कलात्मक रूप से गढ़े गए स्तंभ के लिए उपयोग होता है।
मट्ठ (Matth) :
- जब मृतक की स्मृति में सीमेंट या पक्की सामग्री का उपयोग करके एक छोटी संरचना, जो अक्सर मंदिर जैसी (मट्ठनुमा) दिखती है, बनाई जाती है, तो उसे ‘मठ’ कहा जाता है। यह अपेक्षाकृत आधुनिक निर्माण सामग्री का उपयोग दर्शाता है।
विशेष रूप से बस्तर क्षेत्र की माड़िया जनजाति के ‘खम्ब’ और ‘मट्ठ’ अपनी कलात्मक उत्कृष्टता के लिए जाने जाते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के रूपांकनों , रंगों और आकृतियों का बहुत कुशल संयोजन देखने को मिलता है। ये स्तंभ उनकी समृद्ध सांस्कृतिक और कलात्मक विरासत के प्रमाण हैं।
सामग्री और संरक्षण:
- खम्ब लकड़ी, पत्थर और सीमेंट जैसी विभिन्न सामग्रियों से बनाए जाते हैं।
- लकड़ी के बने स्तंभ अब दुर्लभ होते जा रहे हैं और अक्सर जर्जर अवस्था में पाए जाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि लकड़ी पर नक्काशी करने के लिए उसे खोदना पड़ता है, जिससे वह मौसम (बारिश, धूप, नमी) और दीमक आदि के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती है और समय के साथ नष्ट हो जाती है। पत्थर और सीमेंट के स्तंभ अधिक टिकाऊ होते हैं।


:: गणराज्य सीमा ::
आदिवासी समाज आदिकाल से ही ग्राम गणराज्य व्यवस्था के अनुरूप पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आ रहा है जिसमे हर गांव की अपनी सीमा होती है जिसे पत्थरों से चिह्नित किया जाता है।
आदिवासी गाँव पारंपरिक रूप से आत्मनिर्भर, स्व-शासित इकाइयाँ होती हैं, जिनकी अपनी स्पष्ट भौगोलिक सीमाएँ होती हैं। ये सीमाएँ उनके स्वतंत्र अस्तित्व, संसाधन प्रबंधन और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करती थीं, ठीक वैसे ही जैसे एक छोटे गणराज्य की अपनी सीमाएँ और शासन प्रणाली होती है। गांव की सीमाओं को बड़े-बड़े पत्थरों से चिह्नित किया जाता है जिसे हम पत्थलगढ़ी कहते हैं।
बस्तर के जनजातीय समाज में पत्थलगड़ी आज भी एक जीवंत परंपरा के रूप में विद्यमान है, जो केवल मृत पूर्वजों की स्मृति को सुरक्षित रखने का माध्यम नहीं है, बल्कि आदिवासी अस्मिता, सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता और ग्राम गणराज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था का सशक्त प्रतीक बन चुकी है। यह परंपरा बस्तर के आदिवासियों के जीवनदर्शन, आत्मसम्मान और सामूहिक चेतना का गहरा दर्पण प्रस्तुत करती है।


:: स्व-शासन ::
वर्तमान में जब केंद्र, राज्य सरकार, बाजार और बाहरी शक्तियाँ बस्तर के जल-जंगल-जमीन पर अधिकार जमाने की कोशिश कर रही हैं, तब यह (पत्थलगढ़ी) परंपरा प्रतिरोध का शांत, सांस्कृतिक और संवैधानिक रूप ले रही है। संविधान की पाँचवीं अनुसूची और PESA कानून के अंतर्गत ग्रामसभा को मान्यता प्राप्त है, और पत्थलगड़ी इस अधिकार का प्रतीक बनकर उभर रही है।
इसमें गायता, सिरहा, गुनिया जैसे परंपरागत अभिचारिक व्यक्तियों की भूमिका और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जो इस सांस्कृतिक और परंपरागत प्रथा को समुदाय की चेतना से जोड़ते हैं। जब ग्रामसभा निर्णय लेती है कि किसी स्थल पर पत्थलगड़ी की जानी है, तो गायता द्वारा परंपरागत रूप से सेवा अर्जी कर पत्थर की स्थापना की जाती है। पत्थलगड़ी आदिवासियों के लिए सिर्फ पत्थर नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक घोषणा पत्र है – जो कहता है:
“हमारे पूर्वजों की भूमि, हमारी परंपरा और हमारा शासन, हमें कोई नहीं छीन सकता।”
गांव की सबसे बड़ी संस्था ग्रामसभा होती थी, जो जमीन, जंगल और जल जैसे संसाधनों की देखरेख करती थी। पारंपरिक आदिवासी समाज का ढांचा एक स्वतंत्र छोटे गणराज्य जैसा होता है, जहाँ गाँव ही शासन की मुख्य इकाई होता था है जिसे हम स्व-शासन कहते हैं।
स्व-शासन, इसका मतलब है कि गाँव अपने आंतरिक मामलों में स्वतंत्र होते हैं। गाँव के लोग मिलकर अपने समुदाय से जुड़े निर्णय लेते थे, जैसे कि संसाधनों (ज़मीन, जंगल, पानी) का प्रबंधन, झगड़ों का निपटारा और सामाजिक नियमों का पालन करवाना। गाँव में एक पंचायत या परिषद होती है जिसमें प्रमुख रूप से गायता, पेरमा, पुजारी, मांझी, सिरहा, गुनिया, पटेल और अन्य सम्मानित सदस्य होते थे, जो महत्वपूर्ण फैसले लेते थे। इन गाँवों के अपने अलिखित नियम, कानून और परंपराएं होती थीं, जिनका सभी सदस्य पालन करते हैं जिसमे बाहरी व्यक्ति, राजनीतिक सत्ताओं का हस्तक्षेप निषेध होता है।
आधुनिक समय में, जब सरकारें आदिवासियों की जमीनें औद्योगिक या सरकारी परियोजनाओं के लिए अधिग्रहित करने लगीं हैं, तो आदिवासियों ने अपनी पुरानी पत्थलगड़ी परंपरा को राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रतिरोध के माध्यम में बदल दिया। पत्थलगड़ी आंदोलन 2017-18 में झारखंड के खूंटी जिले से शुरू हुआ, जब राज्य सरकार ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 (CNT) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (SPT) में संशोधन का प्रस्ताव रखा। इन संशोधनों के माध्यम से आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित करने की अनुमति दी गई थी। इस प्रस्ताव का आदिवासी समुदायों ने तीव्र विरोध किया, जिससे पत्थलगड़ी आंदोलन को गति मिली ।
इस आंदोलन के तहत, आदिवासी समुदायों ने अपने गांवों में बड़े पत्थरों पर संविधान के प्रावधानों को उकेरकर उन्हें स्थापित किया, जिससे यह संदेश दिया गया कि ग्राम सभा सर्वोच्च है और बाहरी लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित है। इस आंदोलन ने स्वशासन, भूमि अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की मांग को प्रमुखता से उठाया है।
जब झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन ने राजनीतिक रूप लिया, तब बस्तर में भी उसकी गूंज सुनाई दी। हालाँकि बस्तर में यह आंदोलन सीधे रूप में नहीं फैला, लेकिन भूमि अधिग्रहण, जंगल अधिकार और खनन विरोध के संदर्भ में आदिवासियों ने अपने सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से प्रतिरोध व्यक्त करना शुरू किया। ग्राम सभाओं ने अपनी पारंपरिक भूमिका को फिर से जीवित करने का प्रयास किया है। कई जगहों पर ग्रामसभा द्वारा पारंपरिक पत्थर खड़े कर संविधान की पांचवीं अनुसूची और PESA कानून के तहत अपने अधिकारों की घोषणा की गई।
बस्तर में पत्थलगड़ी को समझने के लिए हमें इसे केवल एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान और आत्म-संविधान की प्रक्रिया के रूप में देखना उचित होगा। यह परंपरा, परंपरा में ही रहकर आधुनिक संदर्भों में जवाब देने की एक कोशिश है। बस्तर का आदिवासी समाज यह बताना चाहता है कि उनके पास न केवल अतीत की स्मृति है, बल्कि वर्तमान को समझने और भविष्य को गढ़ने की क्षमता भी है। पत्थलगड़ी उनके लिए स्मृति का पत्थर नहीं, बल्कि पहचान का स्तंभ है – जो उनके जल, जंगल और जमीन पर उनके नैसर्गिक अधिकार का उद्घोष करता है। यह परंपरा इस बात की साक्षी है कि जब भी आदिवासी समाज को चुनौती मिली, उन्होंने अपने सांस्कृतिक औजारों से न केवल उसका सामना किया, बल्कि उसे एक नया अर्थ भी दिया। पत्थलगड़ी आज बस्तर की आत्मा की पुकार है – एक ऐसी पुकार जो इतिहास, संस्कृति और अधिकार की त्रिवेणी में गूँज रही है।